(सितम्बर 2009)
डॉ. विद्याश्री
भाषा सम्प्रेषण का प्रभावशाली माध्यम है। इसी माध्यम से मानव समाज में अपने विचारों और भावों को सम्प्रेषित करता है। भाषा समस्त मानसिक व्यापारों, मनोभावों की अभिव्यक्ति का साधन है। भाषा सामाजिक संगठन, सामाजिक मान्यताओं और सामाजिक व्यवहार के विकास का एकमात्र साधन है। अत: भाषा-शिक्षण राष्ट्र की अभिवृद्धि के लिए अत्यावश्यक है। राष्ट्र के विकास में भाषा-शिक्षण महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
इक्कीसवीं सदी की तीव्र परिवर्तनगामी दुनिया के साथ चलने के लिए भाषा-शिक्षण का पाठ्यक्रम समय की अनिवार्य माँग है। वर्तमान समय में भाषा-शिक्षण की भूमिका कल्पना व भावना के सहारे किये जाने वाला कोरा वाग्-विलास की नहीं है। उसे जीवन और समाज से जुड़ना होगा। समकालीन चुनौतियों, परिवर्तनों व विमर्श के साथ अपनी गति मिलाकर ही वह समय के साथ चलता है।
भाषा-शिक्षण में हिन्दी का मुद्दा विशेष विमर्श की माँग करता है। इसलिए कि हिन्दी अपने नाम ही नहीं, स्वरूप में भी राष्ट्रव्यापी है। राष्ट्रभाषा होने के नाते इसके दायित्व बहुमुखी हैं। राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय और वैश्विक परिद्रश्य में यह एक राष्ट्र की पहचान का प्रतिनिधित्व करता है। सरकारी-गैर सरकारी गतिविधियों, व्यापार-वाणिज्य, ज्ञान-विज्ञान-प्रौद्योगिकी, शिक्षा-संस्कृति-कला-शिल्प-बाजार-सिनेमा-खेल-मीडिया आदि राष्ट्रीय सन्दर्भों के साथ तथा राजनीति, अर्थनीति, युद्ध और शान्ति, धर्म, पर्यावरण आदि वैश्िवक व्यवहारों-संस्कारों की भी भाषा बन सके। अत: हिन्दी भाषा-शिक्षण विशेष सावधानी की अपेक्षा रखता है।
भाषा का परिप्रेक्ष्य अन्य विषयों की अपेक्षा अधिक व्यापक होता है। यह सूचना, ज्ञान, अनुभव, संवेदना, कौशल व सम्प्रेषण-व्यक्तित्व के इन विविध आयामों से सम्बन्ध रखता है। इसलिए यह आवश्यक है कि यह एक तरफ तो साहित्य में प्रयुक्त छन्द, लय, बिम्ब आदि तथा व्याकरणिक स्वरूप का बोध कराने के साथ ही यह उसके विविध रूपों तथा पद्धतियों का बोध कराये और इस सबके साथ ही व्यापक सामाजिक परिदृश्य, उदात्त संवेदना और वैचारिक समझ अर्जित कर सके। इसके साथ ही एक तरफ उसे अपनी भाषाओं की बोलियों से जुड़ना होगा, दूसरी तरफ अन्य राष्ट्रीय भाषाओं से भी।
हिन्दी की जो पारम्परिक शिक्षण पद्धति है वह अभी तक पुरानी अवधारणों पर आवलिम्बत है। साहित्य के क्षेत्र में हो रहे नये शोध, नये प्रयोग तो दूर, आधुनिक विद्यार्थियों की मानसिक मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं को भी वहीं ध्यान में नहीं रखा जाता। विद्यार्थी भी हिन्दी को सरल और सहजग्राह्य विषय मानकर उसकी उपेक्षा करता है, उसको सीखने में श्रम नहीं लगता, उसे बिना रुचि के सीखता है। कक्षा में अन्य विषयों जैसे, अन्य भाषा (अंग्रेजी) विज्ञान, गणित, वाणिज्य आदि को वह विशेष मानता है अत: पूरा श्रम और समय उन विषयों की अतिरिक्त जानकारी के लिए ट्यशन भी लेता है, पर भाषा-शिक्षण को उपेक्षणीय छोड़ देता है। हिन्दीतर प्रदेश में उच्चतर हिन्दी शिक्षण के स्वरूप से यह स्पष्ट हो गया है कि सीखने और सिखाने वाले दोनों के ही स्तर, रूचि, लक्ष्य और परिवेश में बदलाव जरूरी है।
शिक्षक देश के भावी कर्णधारों का निर्माण करते हैं। अत: शिक्षक ऐसे हों जो देश के अच्छे कर्णधारों का निर्माण कर सकें। अध्यापकों के ज्ञान और काम दिन प्रतिदिन निखर आये, वे कर्तव्यनिष्ठ बनें, छात्रों को भी मेहनत और जिम्मेदारी से पढ़ाते रहें और अपने ज्ञानवर्धन के लिए भी सतर्क रहें। अध्यापक केवल कक्षागत अध्यापन न करें, वह अपने ज्ञान को बढ़ाते रहें और सूचनाओं का नवीनीकरण करें। कक्षा शिक्षण को जीवन में व्यावहारिक अनुभवों से जोड़कर प्रस्तुत करें।
अध्यापक का चरित्र एवं व्यवहार अनुकरणीय हो। अपने व्याख्यान को सहज और सरल क्रम में प्रस्तुत करें। हिन्दी भाषा-शिक्षण के माध्यम से छात्रों में संस्कृतिक बोध विकसित किया जाए। साहित्य के रूप में जो भी विषय रखा जाता है उसके पीछे एक निश्चित उद्देश्य होता है। उस उद्देश्य की पूर्ति शिक्षण के द्वारा होना अनिवार्य है। अत: उसे ठीक तरह समझने की कोशिश करें। भाषा शिक्षण में साहित्य केवल कथन नहीं, सूचना नहीं, मात्र विचार नहीं, अपितु व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास का सर्वाेत्तम साधन है। इस स्तर पर छात्रों में पठन का सर्वोत्कृष्ठ रूप विकसित होने के लिए अध्यापक को सप्रयास चेष्टा करनी है।
हिन्दीतर प्रदेशों में छात्रों को हिन्दी भाषा शिक्षण का पहला सोपान सम्भाषण है। संवाद के लिए पाठ्यपुस्तक का आधार गौण रूप से ही लेना चाहिए। सफल सम्भाषण के लिए आवश्यक है कि प्रथम भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग करने वालों के साथ विद्यार्थियों का सम्पर्क बढ़ाया जाय। प्राय: हिन्दीतर भाषी प्रदेशों में हिन्दी के शिक्षक मूलत: अहिन्दी भाषी हैं। उनके उच्चारण और लहजे में भाषा की मूल मिठास कम हो जाती है। अत: हिन्दी भाषी व्यक्तियों के साथ सजीव सम्पर्क स्थापित करने की सुविधा विद्यार्थियों को मिलनी चाहिए। सम्भाषण के साथ ही विद्यार्थी में अतिरिक्त पठन की आदत विकसित करनी चाहिए। पठन के कारण विद्यार्थी की शब्द सम्पदा बढती है। पठन की प्रवृत्ति को उत्तेजित करने के लिए समाचार पत्रों, विशिष्ट पुस्तकों के आधार पर प्रश्नोत्तरी का सत्र रखा जा सकता है।
द्वितीय भाषा के रूप में हिन्दी को पढ़ाते समय मातृभाषा के साथ हिन्दी की तुलना करके अभेद और भेद के बिन्दुओं से सम्बन्धित अंश पहले पढ़ाया जाना चाहिए और भेदपरक बिन्दुओं से सम्बन्धित अंश बाद में। इससे विद्यार्थियों तुलनात्मक अध्ययन की ओर आकृष्ट होंगे और अनुवाद की ओर अपनी रूचि बढ़ाऐंगे। पठन की रूचि को बढ़ाने के बाद लेखन की रूचि को बढ़ाना आवश्यक है। लेखन के माध्यम से ज्ञात होता है कि विद्यार्थी ने विविध विषयों को कितना आत्मसात किया है। हस्तलिखित पत्र-पत्रिकाओं को तैयार करने की प्रेरणा देकर उनकी सृजनात्मक चेतना को सींचा जा सकता है। इससे विद्यार्थी पत्रिकाओं की ओर आकृष्ट हो जाएगा और अच्छा लेखक भी बन जाएगा। विद्यार्थी जीवन में अनेक प्रकार की क्षमताएँ विकसित होती है। इन्हीं क्षमताओं में से अभिनय की क्षमता को नाट्यस्पर्धा द्वारा प्रोत्साहित किया जा सकता है।
पाठ्यक्रम आधारित पढ़ाई व रटने की प्रवृत्ति को समाप्त कर छात्रों को भाषा स्वयं सीखने व समझने के लिए ग्रन्थालय रूपी प्रयोगशालाओं में जाने के लिए अध्यापक प्रोत्साहन देना चाहिए। क्योंकि ग्रन्थालय शिक्षा के सामुदायिक केन्द्र होते हैं। छात्रों का भाषण, वाद-विवाद, गोष्ठी अथवा सामान्य-ज्ञान प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेना हो तो वे ग्रन्थालय में रखी किताबों का सहयोग लेकर अपनी दक्षता का परिचय दे सकते हैं। बिना ग्रन्थालयों के शिक्षा लंगड़ी है, अध्ययन अपूर्ण है और ज्ञानार्जन असम्भव है। अत: जीवन के शैक्षणिक दौर में ग्रन्थों व ग्रन्थालयों का उपयोग ही शिक्षा में गुणात्मक विकास ला सकता है।
व्यक्तित्व का विकास शिक्षा का केन्द्रीय तत्व है। विकसित व्यक्तित्व वाले मनुष्य का ज्ञान ही तेजस्वी बन जाता है, अन्यथा वह तोतारटन्त मात्र होकर रह जाता है। यह युग ज्ञान के विस्फोट का युग है। आगामी युग की चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए विद्यार्थियों को हिन्दी भाषा-शिक्षण में भाषा और पाठेतर साधन दोनों के माध्यम से ज्ञान का विस्तार करके ही इस चुनौती को स्वीकार करना है।
(केरल ज्योति; फरवरी 2009 अंक से साभार)
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रीडर एवं विभागाध्यक्षा,
हिन्दी विभाग महाराजा कालेज,
मैसूर विश्वविद्यालय मैसूर 570005 कर्नाटक