– अमित
कितना अच्छा हो अगर देश के सभी बच्चों को स्कूल जाने का मौका और साधन मिलें…. शिक्षा मुफ्त और अनिवार्य हो…. वह दिन कब आएगा जब सभी स्कूलों में बच्चों को बैठने के लिए पर्याप्त कमरे होंगे…. एक कक्षा में कम से कम एक शिक्षक होगा…. सभी शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण प्राप्त होगा…. स्कूलों में बच्चों को शारीरिक या मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं किया जाएगा…. जब स्कूल में एक पुस्तकालय भी होगा…. जब शिक्षक ट्यूशन का धन्धा नहीं करेंगे…. स्कूलों के प्रबन्धन व निगरानी में पालकों की भी हिस्सेदारी होगी…. और, यह सब सुनिश्चित करना सरकार की संवैधानिक जिम्मेदारी होगी।
अगर आप भारतीय शिक्षा की बेहतरी के लिए इस तरह का कोई सपना देखते हैं, तो आपके लिए खुशखबरी है – पिछले दिसम्बर में राज्यसभा में `बालकों का नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार विधेयक, 2008´ प्रस्तुत किया गया है। इस विधेयक में अनेक ऐसी बातें है, जिनका ऊपर जिक्र है। आज़ादी के बाद से ही शिक्षा को बुनियादी अधिकार बनाने एवं सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की मांग सरकार से की जा रही थी। अन्ततोगात्वा सन् 2002 में संविधान में छियासीवां संशोधन करके `अनुच्छेद 21क´ जोड़ा गया जिसमें छह से चौदह वर्ष के आयु समूह के सभी बालक-बालिकाओं के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में उपबन्धित किया गया। यह अधिकार कानून के रूप में सभी को देने के लिए ही बालकों का नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार विधेयक, 2008 प्रस्तुत किया गया है।
संविधान संशोधन के 6 वर्ष बाद यह विधेयक सदन में प्रस्तुत किया जा सका। इस देरी से पता चलता है कि इसके मूल में गहरा विवाद है। पहला सवाल संविधान संशोधन से ही जुड़ा हुआ है। संशोधन के पूर्व राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत संविधान के अनुच्छेद 45 में कहा गया है, `राज्य, इस संविधान के प्रारम्भ से 10 वर्ष के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करेगा।´ उन दस वर्षों की अवधि तो 1960 में पूरी हो गई। चूँकि यह राज्य के नीति निदेशक तत्व वाले भाग में था, इसलिए सरकार बाध्य नहीं थी। काफी जद्दोजहद के बाद सन् 2002 में शिक्षा का अधिकार संविधान के मूल अधिकारों (भाग 3) में समाविष्ट तो हुआ, मगर यह अधिकार सभी बच्चों को न देकर केवल `छह से चौदह वर्ष तक´ की आयु के बच्चों को मिला। आयु के मसले पर एक पक्ष का कहना है कि शिक्षा का अघिकार मूल अधिकारों में शामिल होना एक बड़ी जीत है। दूसरा पक्ष कह रहा है कि राज्य के नीति निदेशक तत्व के अन्तर्गत अनुच्छेद 45 अधिक व्यापक था
उन्नीकृष्णन फैसला (1993) भी इस दिशा में एक मील का पत्थर था। जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 45 (बालकों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबन्ध) को अनुच्छेद 21 (प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण) के साथ देखा जाना चाहिए। अपने फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट कहा है कि चौदह वर्ष तक प्रत्येक बच्चे को नि:शुल्क शिक्षा पाने का अधिकार है। वर्तमान अधिनियम का विरोध करने वालों का कहना है कि जो जन्म से चौदह वर्ष तक नि:शुल्क शिक्षा पाने जो अधिकार पहले से मिला हुआ था वह संविधान के छियासीवें संशोधन में सीमित होकर छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों के लिए ही रह गया है। इस प्रकार शिक्षा को मूल अधिकार के रूप में शामिल करने के नाम पर एक कदम पीछे हटते हुए बच्चों की आयु सीमा घटा दी गई है। संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार सम्मेलन ने जन्म से 18 वर्ष की आयु को `बाल्यावस्था´ माना है। इस पर भारत सरकार ने भी हस्ताक्षर किये हैं। शिक्षा के अधिकार के पक्ष में लड़ने वाले अनेक लोगों का मानना है कि जन्म से 18 वर्ष की आयु पूरी होने तक नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया जाना चाहिए।
तथापि इस विधेयक की सकारात्मक बातों म सबसे प्रमुख है छह से चौदह वर्ष की आयु के प्रत्येक बालक (और बालिका) को प्रारिम्भक शिक्षा पूरी होने तक आसपास के स्कूल में नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदान करना। इसमें यह भी कहा गया है कि फीस या किसी अन्य खर्च को वहन न कर सकने के कारण किसी बालक को शिक्षा से वंचित नहीं किया जा सकता। इस विधेयक में पड़ोसी स्कूल के रूप में सरकारी स्कूलों के साथ-साथ पूर्ण या आशिंक सरकारी अनुदान पाने वाले स्कूल तो हैं ही, पूर्णत: निजी स्कूल, नवोदय, केन्द्रीय और सैनिक विद्यालय भी शामिल हैं। सरकारी स्कूलों में सभी बच्चे नि:शुल्क पढ़ेंगे। अनुदान पाने वाले विद्यालयों को अनुदान के अनुपात में `असुविधाग्रस्त समूह´ और `दुर्बल वर्ग´ के बच्चों को भर्ती करना होगा। निजी स्कूलों को प्रत्येक कक्षा में कम से कम 25 प्रतिशत छात्र आसपास के इलाके से आने वाले उपरोक्त दोनों समूहों से होने आवश्यक हैं। निजी विद्यालयों को सरकार अपने द्वारा शिक्षा पर होने वाले प्रति छात्र खर्च के औसत के आधार पर नियत राशी देगी। स्थानान्तरण प्रमाण-पत्र या जन्म प्रमाण-पत्र जैसे किसी भी दस्तावेज के अभाव में बालक का दाखिला रोका नहीं जा सकता। इसके अलावा इस विधेयक में कहा गया है कि देश के हर क्षेत्र में समुचित संख्या में और समुचित दूरी पर स्कूलों की स्थापना का दायित्व सरकार और स्थानीय निकायों का है।
विधेयक में स्कूल के `मान´ और `मानक´ भी तय किए गए हैं, जो इस प्रकार हैं –
पहली से पाँचवीं कक्षा के लिए 60 छात्रों के लिए कम से कम 2 शिक्षक, 90, 120 और 200 छात्रों के लिए क्रमश: तीन, चार और पाँच शिक्षक अनिवार्य हैं। इसी क्रम में कहा गया है कि 150 से अधिक छात्रसंख्या पर एक अतिरिक्त प्रधान अध्यापक होगा। 200 के ऊपर की संख्या होने पर प्रधान अध्यापक को छोड़कर छात्र-शिक्षक अनुपात 40 से अधिक नहीं होगा। यह स्थिति आदर्श के आसपास है। कक्षा 6 से 8 तक के लिए प्रति कक्षा कम से कम एक शिक्षक का प्रावाधान है। विधेयक में ऐसी व्यवस्था करने को कहा गया है जिससे कि विज्ञान और गणित, सामाजिक विज्ञान और भाषा के लिए कम से कम एक शिक्षक हो। इसमें प्रत्येक 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक का अनुपात अपेक्षित है और 100 से अधिक छात्रसंख्या वाले विद्यालय में एक पूर्णकालिक प्रधान अध्यापक के साथ-साथ कला शिक्षा, स्वास्थ्य और शारीरिक शिक्षा एवं कार्य शिक्षा के लिए भी अंशकालिक शिक्षक होना चाहिए। साथ ही स्कूल का अर्थ सभी मौसम में सुरक्षा देने वाला ऐसा भवन अपेक्षित है जिसमें प्रत्येक शिक्षक के लिए एक कक्षा, खेल का मैदान तथा लड़कों और लड़कियों के लिए पृथक शौचालय हो। शाला भवन में रसोई का भी प्रावधान है।
इसका अर्थ है कि अब गली-कूचों में घटिया दर्जे के निजी स्कूल नहीं होंगे। इसके अलावा कार्य-दिवसों व शिक्षण घण्टों का स्पष्ट उल्लेख करते हुए विधेयक में कहा गया है कि पहली से पाँचवीं कक्षा के लिए वर्ष में कम से कम 200 कार्य दिवस और 800 शैक्षणिक घण्टे तथा छटी से आठवी कक्षा के लिए 220 कार्य दिवस और 1000 शैक्षणिक घण्टे अपेक्षित हैं। शिक्षकों से शिक्षण व तैयारी के लिए प्रति सप्ताह 45 घण्टे देने की अपेक्षा की गई है। सरकारी स्कूलों के शिक्षक आमतौर पर अपने कार्यालयीन कार्य भी शिक्षण घण्टों में ही करने के आदी हैं और वे मानते हैं कि उनकी नौकरी उतने ही घण्टों की है, जितने समय के लिए बच्चे स्कूल आते हैं। बैंकों की तरह स्कूलों में `व्यवहार´ और `कार्यालयीन कार्य´ का समय अलग से नियत नहीं है। यह विधायक इस विषय पर मौन है।
पुस्तकालय, शैक्षिक उपस्कर, खेल और क्रीड़ा सामग्री की उपलब्धता के विषय में स्पष्ट उपबन्ध हैं। इससे पता चलता है कि सरकार बच्चों के सर्वांगिण विकास की ओर भी ध्यान दे रही है। कहा जा सकता है कि इस प्रकार के प्रावधान अनेक बार किये जा चुके हैं मगर शिक्षा विभाग में व्याप्त लालफीताशाही और सरकारी शिक्षकों के उदासीन रवैये के चलते सारी योजनाएँ कागजों पर धरी रह जाती हैं। यह सच है, मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह विधेयक दो कदम आगे की बात कर रहा है। क्योंकि एक तो यह संविधान के मूल अधिकार से सम्बन्ध है, इसलिए इसके उल्लंघन या अवमानना को न्यायालय के कटघरे में खड़ा किया जा सकता है और दूसरे इसमें एक विद्यालय प्रबन्धन समिति का भी प्रवधान है जो (सरकारी अनुदान प्राप्त नहीं करने वाले गैर-सरकारी विद्यालयों को छोड़कर) सभी स्कूलों में बनाना अनिवार्य होगा। यह समिति विद्यालय में प्रविष्ठ बालकों के माता-पिता या संरक्षक और शिक्षकों के निर्वाचित प्रतिनिधियों से मिलकर बनेगी। इसमें कम से कम तीन-चौथाई सदस्य माता-पिता या संरक्षक होगे और उसमें भी असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बालकों के माता-पिताओं को समानुपातिक प्रतिनिधित्व मिलेगा।
इस रूप में यह विधेयक शिक्षा के अधिकार के सपनों को साकार करता प्रतीत होता है। इसके लागू होने के बाद की मजेदार स्थितियों का अनुमान लगाया जा सकता है। विधेयक के कानून बन जाने के बाद असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के माता-पिता अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के बदले `अच्छी पढ़ाई´ के लालच में अनुदान प्राप्त और गैर-अनुदान प्राप्त निजी स्कूलों में भेजेंगे और कानूनी रूप से निजी स्कूल प्रत्येक कक्षा में ऐसे 25 प्रतिशत बच्चों के लेने के लिए बाध्य होंगे। उन तथाकथित अच्छे स्कूलों में इन वंचित वर्ग के बच्चों से कैसा व्यवहार होता है, इस पर निगरानी रखने की आवश्यकता है।
इसी क्रम में कहा जा सकता है कि कस्बों और गाँवों में, जहाँ अब तक निजी स्कूल नहीं हैं, वहाँ अनेक निजी स्कूल भी खुल सकते हैं। ऐसे स्कूल संचालकों को अब जोखिम का डर नहीं होगा। उन्हें अधिक से अधिक संख्या में असुविधाग्रस्त समूह और दुर्बल वर्ग के बच्चों को भर्ती करना होगा। उनकी फीस तो सरकार देगी। यह विचारणीय है कि इस परिप्रेक्ष्य में सरकारी स्कूलों का क्या होगा? ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्र में सरकारी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालय वैसे भी बदनाम हैं – मास्टर नहीं आता, आता है तो पढ़ाता नहीं, आदि शिकायतें आम हैं। ऐसे में पालकों का रुझान निजी स्कूलों की ओर होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि विधेयक के आलोचक इसपर निजीकरण का हितैषी होने का आरोप लगा रहे हैं।
विधेयक के अनुसार पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षकों के प्रशिक्षण का मानकीकरण और उनकी योग्यता का निर्धारण एक केन्द्रीय निकाय द्वारा किया जाएगा। इससे अप्रशिक्षित और अयोग्य शिक्षक बाहर हो जाएंगे। विधेयक में स्पष्ट कहा गया है कि सरकारी और अनुदान प्राप्त विद्यालयों में शिक्षक के कुल पदों में से दस प्रतिशत से अधिक पद रिक्त नहीं रखे जा सकते। शिक्षकों की उपलब्धता के लिए यह अच्छा उपाय है मगर देखना होगा कि इसे व्यवहार में लागू कैसे किया जा सकता है? एक शिक्षाविद् ने इसपर टिप्पणी करते हुए पूछा कि जिस स्कूल मे कुल 2 या 3 शिक्षकों के पद हों, तो उसका दस प्रतिशत कितना होगा ?
शिक्षकों के प्रायवेट ट्यूशन पर यह विधेयक रोक लगाता है। मगर विधेयक में `शिक्षक´ की परिभाषा न होने के कारण इस प्रावधान के लागू होने में सन्देह है। जिस देश में मुख्यमंत्री के जेल जाने की स्थिति में उसकी अशिक्षित और राजनैतिक क्रियाकलापों से अलिप्त रही धर्मपत्नी को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा दिया जाता है और पंचायत चुनाव में किसी महिला के सरपंच चुने जाने पर उसके पति को फूलमालाओं से लाद कर जूलूस निकाला जाता है, उस देश में सरकार ट्यूशन पर कैसे रोक लगाएगी?
एक सवाल अल्पसंख्यको के धार्मिक शिक्षा के संवैधानिक अधिकारों (अनुच्छेद 30) को लेकर भी है। विधेयक में संवैधानिक मूल्यों की शिक्षा को अनिवार्य बनाया गया है। इसे लेकर पिछले दिनों 140 एग्लो इंडियन स्कूलों के प्रमुखों के सम्मेलन में चिन्ता व्यक्त की गई थी। यह स्पष्ट नहीं है कि मदरसों, सरस्वति शिशु मिन्दरों, दयानन्द एग्लो वैदिक स्कूलों और ऐसे तमाम शिक्षा संस्थानों का क्या होगा जिनकी बुनियाद धार्मिक आधार पर टिकी है? भारत में अनेक ऐसे भद्र विद्यालय भी हैं जो किसी प्रदेश अथवा केन्द्रीय शिक्षा मण्डल से सम्बद्ध न होकर अन्तरराष्ट्रीय बोर्ड से मान्यता प्राप्त हैं। उनके साथ सरकार क्या व्यवहार करेगी? क्या उन्हें भी पड़ोसी स्कूल माना जाएगा?
भारत में अनेक प्रकार के विद्यालय हैं, उनमें मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में ज़मीन आसमान का अन्तर है। प्रस्तुत विधेयक इस मूलभूत भिन्नता को कम करने के लिए कुछ नहीं कहता। इस रूप में यह यथास्थितिवादी है। सम्भव है कि विधेयक के कानून बनने के बाद इस सन्दर्भ में अदालत में मुकदमें दायर होंगे। ऐसे तमाम सवालों के जवाब समय-समय पर अदालत को ही देने होंगे।
इस अनिश्िचतता के बावजूद दावे से कहा जा सकता है कि यह विधेयक भारत की शिक्षा व्यवस्था में व्यापक बदलाव का सूत्रपात करेगा। लेकिन यह जरूरी नहीं कि बदलाव सकारात्मक दिशा में ही हो। भारत की शिक्षा की भावी दिशा और दशा का समुचित अन्दाज़ा इस विधेयक के कानून बनने के कुछ वर्षों बाद ही लगाया जा सकेगा।
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