(सितम्बर 2009)
14 सितम्बर को `हिन्दी दिवस´ मनाने की परम्परा है, इसलिये इस महीने हिन्दी का बड़ा गुणगान होता है। पढ़ने-लिखने और टी.वी. देखने वाले कुछ हिन्दी भाषियों का हिन्दी प्रेम उमड़-घुमड़ कर बरसने लगता है। सबको याद दिलाने की कोशिश होती है कि भारत राष्ट्र की एक `राष्ट्रभाषा´ भी है। हिन्दी को पर्याप्त सम्मान न मिलने का रोना रोया जाता है। 14 सितम्बर बीतने के साथ ही लोग अपने-आपने काम में जुट जाते हैं।
सही है कि भारत का संविधान अनुच्छेद 343 में हिन्दी को `राजभाषा´ का दर्जा देता है। अपेक्षा की जाती है कि भारत सरकार का कामकाज, भारत सरकार का प्रदेशों से और प्रदेशों के बीच परस्पर संवाद-सम्पर्क का माध्यम देवनागरी लीपि में लिखी हिन्दी भाषा में हो। हम सब जानते हैं कि वह नहीं हो रहा है। प्रशासन तंत्र में बैठै अफसरों की सुविधा के लिये अंग्रेजी का बोलबाला है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि हमने भारत की अफसरशाही का समूचा ढ़ांचा अंग्रेजी शासन से यथावत् स्वीकार किया और कायम रखा है। इसलिये हिन्दी को `ऑफिशियल लेंग्वेज´ (कृपया ध्यान दें, संविधान में `राष्ट्रभाषा´ का कोई उल्लेख नहीं है) घोषित करने वाले संविधान का मूल प्राधिकृत पाठ अंग्रेजी में ही है। हिन्दी में उसका अनुवाद किया जाता है। किसी संवैधानिक उपबन्ध पर विवाद होने या स्पष्टीकरण की आवश्यकता होने पर सर्वोच्च न्यायालय संविधान के मूल अंग्रेजी पाठ के आधार पर ही व्याख्या करेगा।
तो, यह हालत है हिन्दी की ! मगर हिन्दी की दुर्दशा का एकमात्र यही कारण नहीं है। जो भाषा जनता के ज़बान से उतर जाती है, वह मर जाती है। भारत में एक बड़ी आबादी है जो हिन्दी समझती है। उनसे संवाद का माध्यम हिन्दी ही है। जमाना वैश्वीकरण का है। वैश्िवक उत्पादकों की मजबूरी है कि वे अपना सामान बेचने के लिए हिन्दी का प्रयोग करें। मगर बाजार का अपना न्यायशास्त्र है – शक्तिमान का सर्वस्व ! इसलिये हमें यह समझ लेना होगा कि हिन्दी बाजार में खड़ी है। उसकी ताकत बढ़ते रहेगी तो ही वह टिकेगी। ताकत बढे़गी व्यवहार से। हिन्दी को हम कितना अधिक, कितना व्यापक आधार देते पाते हैं, यह चुनौती है।