कौवे

– साने गुरूजी

भाग 1) बचपन का दोस्त

मुझे बचपन में कौवा बहुत पसन्द था। उसका वो काला-कलूटा रंग, उसका वो पंख फड़फड़ाना, जोर से कांवऽ कांवऽ की आवाज करना, उसकी वो अजीबोगरीब हरकतें, सभी कुछ पसन्द था। माँ की गोद में बैठे-बैठे मैं न जाने कितनी देर तक उन्हें देखा करता था। बचपन में, खास तौर पर खाना खिलाते समय माँ मुझे आंगन में ले जाती थी। उसके हाथों में दाल में भीगी रोटी का टुकड़ा हुआ करता था और वह मेरे मुँह में ड़ालते हुए कहती, "ये ले चिड़िया का….ये कौवे का…. वो देख कौवा…..आजा….आजा…कागा….मेरा बेटा रोटी खाता है।" और तब मैं वह ग्रास मुँह में ड़ालता। मैं राजा ! इस तरह माँ की गोद में बैठकर मैं खेलते-खेलते, चिड़िया-कौवे देखते हुए अपना कलेवा खत्म करता। इसी बीच कौवा उड़ जाता। माँ कहती, "कागा गया। ये ले इतनी रोटी खा ले, ले ना।" जब तक आस-पास कौवा नजर नहीं आता, मैं खाता नहीं था। थोड़ा बड़ा होने पर मैं उसकी ओर रोटी का टुकड़ा फैंकता और वो उसे ले लेता।

एक दिन तो मैं आंगन में रोटी लेकर बैठा था इतने में वो पट्ठा आया और मेरी रोटी लेकर फुर्र से उड गया। रोटी ! मैंने तालियाँ बजाईं। मुझे मजा आया। "माँ, कागा आया और उसने मेरी रोटी छीन ली। उसकी माँ उसे क्यों नहीं देती ?" उसे मेरी रोटी अच्छी लगती है, मेरी माँ के हाथ से बनी रोटी अच्छी लगती है, है ना ?" ऐसा मैं माँ से पूछता और फिर आंगन में जाकर कहता, "कांव – कांव – कांव, मेरा टुकड़ा लाओ।" मगर वह ऊँची ड़ाल पर जाकर बैठ जाता। मैं सोचता कि कौवा मेरे पास आता है तो मैं क्यों उसके पास नहीं जा सकतार्षोर्षो मैं माँ से पूछता – "माँ, मेरे पंख कहाँ हैं ? मेरे पंख किसने तोड़ दिये ? कौवे को उड़ना आता है, अपने को क्यों नहीं आता ?" माँ हँसती और कहती – "भगवान को गुस्सा आया और अपन इंसानों के सारे पंख काट ड़ाले। पहले इंसानों को भी उड़ना आता था। रावण आसमान से उड़कर नहीं आया था क्या ?"

मैं कहता – "वो तो रथ में बैठकर आया था। जटायू ने उसका रथ तोड़ा था।"

"जा, बाहर जाकर खेल" कह कर माँ मुझे बाहर भेज देती।

जो भी हो, बचपन से ही मुझे कौवे से प्यार था, स्नेह था, अपनापन था। मैं बड़ा होने लगा। कौवों के बारे में लोगों की बुरी बातें सुनकर मुझे अच्छा नहीं लगता, लोग उसे अपशकुनी कहते, चण्ट और दुष्ट कहते, उसे लोग लालची कहते, पेटू कहते। `सर्वभक्षकस्तु वायस:´ इस सूक्त की रचना करके किसी ने हमेशा के लिए कौवे की बदनामी कर रखी थी। जिस व्यक्ति ने ये लिखा था, अपने मन में मैं उसे सैकड़ों गालियाँ दिया करता था।

मैं सोचता कि यह सब कौवों को कैसे सहन होता है ? उन्हें यह पता है क्या ? हम इंसान कौवों को कितना नीच मानते हैं, यह उन्हें पता है क्या ? अगर पता है तो इसके बाद भी वो इंसानों के साथ इतनी भलाई से कैसे पेश आते हैं। कभी इंसानों से झगड़ते नहीं हैं। उन्हें छोड़ कर जाते नहीं हैं। मैंने मन ही मन निश्चय किया कि यह सब मैं कौवों से पुछूंगा।

मुझे अपनी चिड़िया, कौवे, गायें, बिलयाँ, कुत्ते, चिटियाँ, मैना, तोतों की भाषा समझ में आती थी। उनकी भाषा समझना आसान है। स्थिति के अनुसार उनकी अलग-अलग आवाज़ों का मतलब होता है। मैंने थोड़ा-सा संस्कृत और अंग्रेजी सीखा मगर ऊब गया। उन भाषाओं में न जाने कितने शब्द हैं और शब्दों-शब्दों के बीच ही कितना झगड़ा है ! शब्दों के अर्थ तक निश्चत नहीं हैं। एक ही किताब के अनेक अर्थ वो करते हैं। जिस किताब का अर्थ निश्चित नहीं, जिन शब्दों का अर्थ निश्चित नहीं ऐसे शब्द भला कोई क्यों लिखे ? उन शब्दों का इस्तेमाल करके कोई किताब आखिर क्यों बनाई जाए ? उन शब्दों के अर्थ निश्चित करने के लिए शब्दकोष बनाते हैं ! उन इंसानी शब्दों, उन मोटे-मोटे शब्दकोषों से मैं ऊब गया ! मुझे लगता कि वो मोटे-मोटे शब्दकोष सिरहाने रखने के लिए ही अच्छे हैं। मैंने अन्य भाषाओं का अध्ययन करना छोड़ दिया। सभी मनुष्यों में व्याप्त आँसू और हँसी की भाषा मैंने ठीक से सीख ली थी, मगर उसमें भी लफड़ा ! कभी कोई मगरमच्छ के आँसू बहाता, तो कोई खुशी के आँसू ! कोई खुशी से हँसता, कोई मजाक करने के लिए, तो कोई शरारत से हँसता। सीधा-सा हँसना और रोना, मगर उसका भी इंसानी अर्थ निश्चित नहीं।

मुझे अपने पक्षी पसन्द थे, पौधे और फूल पसन्द थे, गाय-बैल पसन्द थे। मैं उनके पास जाया करता, उनसे बातें करता, खेलता। इस तरह मुझे उनकी भाषा समझ में आने लगी। उनके सुख-दुख मैं जान लेता। उनका `काऽकाऽकाऽकाऽ´ की आवाज का उतार-चढ़ाव मैं पहचान सकता था। एक दिन एक कौवे के पास जाकर सारी पूछताछ करने का मैंने फैसला किया। इंसानों के बारे में उसका क्या खयाल है, यह पूछने का मैंने निश्चय किया।

भाग 2) कौवों का कथन

दोपहर का वक्त था। मैं एक खेत में गया। अपनी रोटी लेकर ही मैं खेत में गया था। एक पेड़ के नीचे मैं रोटी खाने के लिए बैठा। इसके पहले चारों दिशाओं में मैंने रोटी के टुकड़े फैंक दिये। फैंके नहीं,अर्पित किये ! आस-पास कीड़े-मकोड़े होंगे,अदृश्य जीव भी होंगे,थोड़ा उन्हें नहीं देना चाहिए क्या ? अकेले खाना पाप है ! पुराने ज़माने से वेद चिल्ला कर कह रहे हैं, `केवलाघो भवती कैवलादि´ – `जो केवल अकेले खाएगा वह पापरूप होगा।´ मगर आज सुनता कौन है ? कौवे,चिड़िया, कीडे़-मकोड़े,बिल्ली,कुत्ते वगैराह को रोटी का टुकड़ा देना तो दूर अगर पड़ोस में अपना भाई भूखा हो,घर में काम करने वाले भूखे हों,तो उनकी तरफ अपना ध्यान कहाँ रहता है ? महान भारतीय संस्कृति का स्वरूप आज तक हमने अपने गले नहीं उतारा है। हम सभी पेटू हैं। हम अपना ही पेट भरने तक सीमित रह गए हैं।

रोटी के टुकड़े अर्पित करके मैं अपनी रोटी खाने लगा। मैंने कौवे को आवाज लगाई। `मेरा साथ देने आ´ कह कर बुलाया। "काऽ काऽ का" की पुकार लगाई। आसपास ज्यादा कौवे नहीं थे। फिर भी देखो, एक आ ही गया। ड़रते-ड़रते आया। मैं उसकी भाषा में बात करने लगा। वो खुश हो गया। आश्चर्य से उसने कहा, "तुम्हें हम कौवों की भाषा आती है !"

मैंने कहा, "हाँ, मुझे तुम्हारी भाषा आती है और मुझे पशु-पक्षियों की भाषा पसन्द है।"

उस कौवे ने पूछा, "हम और हमारी भाषा तुम्हें पसन्द है ? हम तो जाति के नीच, बहुत दुष्ट, हम बुरे हैं,लोभी, गन्दगी पर बैठने वाले ! हमें तो तुमने त्याज्य बताया है। तुम इंसान होकर भी अपवाद कैसेर्षोर्षो तुम हमारा तिरस्कार नहीं करते ?"

"नहीं, बचपन से तुम्हारा काला-कलूटा रंग देखकर मुझे बहुत खुशी होती थी। तुम्हारा रूप दिखा-दिखा कर माँ मुझे खाना खिलाती थी। इसी लिए जो तो मैंने खाने के लिए तुम्हें पुकारा। तुम मेरे बचपन के दोस्त हो। बचपन में माँ मुझे आंगन में बैठा देती थी। मैं तुम्हारी ओर देखा करता था। उस चिड़िया रानी की ओर देखता। तुझसे काफी कुछ पूछना है। ठीक है ? बताएगा क्या ?" मैंने पूछा।

कौवे ने कहा, "हाँ, बड़े मजे से। हम तुमसे बातें करने के लिए कितने उत्सुक रहते हैं। मगर तुम सब अपने ही घमण्ड और अकड़ में रहते हो। तुम भाई-भाई भी आपस में ठीक से बात नहीं करते,तो हमसे क्यों बात करोगेर्षोर्षो हमें लगता है, मानव कितना अजीब जीव है! उसे दुनिया में अपने अलावा कोई और पसन्द नहीं,मगर कहना पड़ेगा कि तुम जैसे अपवाद भी हैं। ठीक है, पूछ। बिना किसी हिचक के अपने सारे सवाल पूछ।"

उसकी यह सुन्दर और मार्मिक बात सुनकर मुझे आश्चर्य हुआ। फिर हमने एकदम खुले मन से एक-दूसरे से बातें कीं।

"क्यों रे कागा, तुम्हें हम इंसानों पर गुस्सा नहीं आता क्या ? हमने अनेक प्रकार से तुम्हें बदनाम किया। तुम्हें नीच, हीन, पतित कहा, इसका तुम्हें कभी बुरा नहीं लगा ? ये बातें तुम्हें पता हैं या नहीं ? ये बातें तुम्हारे कानों पर पड़ीं होंगी तब भी तुम इतने शान्त कैसे होर्षोर्षो तुम लोगों में भी शान्ति का सन्देश देने वाले सन्त हुए हैं क्या ? तुमने इंसानों के सिर पर चोंच क्यों नहीं मारी ? आंगन में छोटे बच्चे सोते रहते हैं, उनकी आँखें क्यों नहीं फोड़ीं ? इन्सानों ने आज हजारों वर्षों से तुम्हारी बदनामी कर रखी है। तुम इसका बदला क्यों नहीं लेते ? तुम्हारे मन में कभी ऐसा विचार नहीं आया क्या ? तुम क्या मान-अपमान के परे हो गए हो ? `हाथी चला बजार,कुत्ते भौंके हजार´ – क्या ऐसा मानकर तुम इंसानों की अनदेखी करते हो ? मेरे मन में ऐसे बहुत सारे सवाल उठते हैं। उन सभी का तुम जवाब दो।" ऐसा कह कर मैं रुक गया।

कौवे ने एक बार अपनी चोंच को रगड़ कर साफ किया। पंखों को जरा चोंच से खुजलाया। इधर अपनी नजरें घुमा कर ठीक से जायज़ा लिया और फिर वह बोला, "देख भाई, मैं तुझे सारी सच्चाई बताता हूँ। संक्षेप में कहूँगा, क्योंकि मुझे जल्दी घर वापस जाना होगा। दो बूढ़े कौवे बीमार हैं। उनकी देखभाल के लिए मुझे जाना होगा। तुम्हारा दिया रोटी का टुकड़ा मैं उन्हीं के लिए ले जाऊँगा। इसीलिए वह मैंने खाया नहीं है। तुझे लगता होगा कि मैंने अपने हिस्से की रोटी का एक टुकड़ा इसे दिया पर ये खाता क्यों नहीं ? इसलिए मैंने यह बता दिया। 

अब तुझे एक पुरानी बात बताता हूँ। पहले से ही हमारी जाति अल्पसन्तोषी है, न किसी के लेने में, न देने में। जो मिला खुशी से खाना और दो दिन की यह जिन्दगी बिताना, यह हमारी जाति का स्वभाव। सिर्फ हमारी ही जाति के खिलाफ ही नहीं, बल्कि इंसानों के अलावा सारी सृष्टि के खिलाफ इंसानों ने बदमानी का जो अभियान चलया हुआ है उसकी हमें जानकारी है। इंसान सबसे श्रेष्ठ है, वो भगवान की प्रतिमा है। भगवान की बनाई हुई वह सर्वोत्तम कलाकृति है। उसके पास बुद्धि है, हृदय और मन है। उसका आकार सर्वांग सुन्दर हैं – इंसानों की ऐसी तमाम खुशफहमी भरी बातें हम सुनते हैं और मन ही मन हँसते रहते हैं। मगर इंसानों को लगता है कि दूसरों की निन्दा किए बिना खुद की श्रेष्ठता साबित नहीं होती। इसलिए इंसान अपने अलावा सभी प्राणियों की निन्दा करने लगा। जो पशु, जो पक्षी, उसकी जरा सी भी नकल करेगा, उसकी मर्जी के हिसाब से चलेगा तो इंसान उसकी तारीफ करेगा। कुछ पागल कवि वगैराह इसी तरह के लोग होते हैं। उन्होंने पशु-पक्षियों का, इंसानों के अलावा की सृष्टि का मजेदार वर्णन किया है। हमारी तारीफ की है, मगर उन्होंने हमारी अपमान भी किया है। खास तौर पर कौवों का तो तुमने बहुत ज्यादा अपमानित किया है। यह सब हम सहन कर रहे थे, लेकिन कुछ सालों पहले हममें से कुछ बहादुर नौजवान कौवे सामने आए। वे विद्रोह की भाषा बोलने लगे। वो कहने लगे, आओ ! इंसानों के खिलाफ विद्रोह करें। आखिर एक दिन सभी कौवों की एक बड़ी सभा करने का निर्णय हुआ।"

मैंने बहुत उत्सुक होकर पूछा, "तो तुम्हारा सम्मेलन हुआ क्या ?"

"हाँ, हुआ तो, उसकी सच्चाई तो मैं तुम्हें बाद में बताऊँगा ही, मगर अभी मुझे देर हो रही है।" मुझे ऐसा आश्वासन देकर वो कौवा उड़ गया।

भाग 3) काग सभा

अगले दिन खाना खाते समय मैंने कौवे को बुलाया और सीधे विषय पर आते हुए सवाल दागा, "आ गए कौवे ´दा, कब से तुम्हारा रास्ता देख रहा था। मुझे जानना है कि हम इंसानो के बारे में तुम कौवे क्या सोचते हो। पिछली बार तुमने बताया था कि कोवों ने एक विशाल सभा करने का फैसला किया था।"

उस कौवे ने पिछली बार की तरह अपनी चोंच जरा घिस-घास कर साफ की और फिर बोला, "कल मैंने तुम्हें बताया था कि नर्मदातट के कबीर वट पर सभा करने का निर्णय हुआ था। दक्षिण भारत के एक कौवे को उस सभा का अध्यक्ष बनाया गया। उम्र ज्यादा होने के कारण उसका रंग एकदम काला था। बूढ़ा होने के साथ ही वह तेजस्वी था, तेजस्वी होने के साथ ही वह दयावान, बड़ा दूरदर्शी और नीतिज्ञ भी था। अध्यक्ष के स्वागत में हमने जुलूस निकाला। उसमें हज़ारों कौवे शामिल हुए। अध्यक्ष के आते ही वहाँ मौजूद हज़ारों कौवों ने `का ऽ का ऽ का ऽ काऽ !´ ऐसी हर्षध्वनि की। पूरा वटवृक्ष चमचमाते काले रंग से ढंक गया स्वागताध्यक्ष ने अपने भाषण में कहा, "हज़ारों सालों के बाद आज हम फिर इकट्ठा हुए हैं। इंसान आए दिन सभाएँ आयोजित करते रहते हैं। सभा करना उनका एक शौक बन गया है। लेकिन अपन आज एक गम्भीर कारण से इकट्ठा हुए हैं, आज कौआ जागृत हो गया है। अपने नौजवानों ने नया झण्डा बुलन्द किया है। अपमान से उनका दिल जल रहा है। उन्हें इस बात का बुरा लग रहा है कि इंसानों द्वारा की जा रही निन्दा को हमने हज़ारों बरसों से बर्दाश्त किया है। दिल जल रहा है, खून खौल रहा है, पंख फड़फड़ा रहे हैं, चोंच कपकपा रही है। मगर अपने पूर्वजों ने गुस्से में आकर बुरे बोल नहीं कहे तो यह उनका स्वाभिमान ही था। मानवों के निन्दा अभियान की उन्होंने उपेक्षा की। मन में द्वेष नहीं आने दिया। इंसानों की सेवा ही करते रहे। आज की पीढ़ी को यह शूल चुभ रहा है, मगर आपको सोच विचार कर कदम उठाना है। हमारा सौभाग्य है कि ऐसे समय में मार्गदर्शन के लिए हमें एक महान अध्यक्ष मिले हैं। मैं उनकी ज्यादा प्रशंसा नहीं कर रहा। शब्दाडम्बर इंसानों का धर्म है। दिखावा करना, दम्भ का दम भरना, नकल उतारना ये सब उसी की कला है। अपन जिस जगह इकट्ठा हुए हैं, उस वृक्ष का इतिहास अत्यन्त उज्वल है। यहाँ हज़ारों पक्षियों की बसाहट हुआ करती थी। सभी प्रेम से रहा करते थे। मैं अध्यक्ष महोदय को ऐसे पवित्र वटवृक्ष पर शिखरारूढ़ होने का निवेदन करता हूँ।"

स्वागताध्यक्ष के भाषण के बाद सभा की औपचारिक शुरुआत हुई। युवा संघ का उत्साही कार्यकर्ता सबसे पहले बोलने के लिए उठा। सभी ने पंख फड़फड़ाए और जय-जयकार किया। उन्होंने कहा, "अपनी जाति ने अब तक गज़ब की सहनशीलता का प्रदर्शन किया है। दुनिया में जितना आप शान्त रहेंगे, उतना ही आपको दबाया जाएगा। इन इंसानों ने सभी निरीह प्राणियों को पैरों तले रौन्दने का अभियान चला रखा है। वह मेमनों, मुर्गों की बलि देता है, सिंह-बाघ की नहीं। हम नरम पड़े तो दुनिया दुत्कारने लगती है। क्षमाभाव युवाओं को लज्जित करने वाला होता है। हम काले हैं, इसलिए हमारी निन्दा। और क्या हिन्दुस्तान का आदमी हमारे काले रंग की निन्दा कर सकता है ? इसी देश ने बताया है ना कि सभी रंगों से परे जाकर चैतन्य एक है ? और उनका भगवान तो देखो, शालिग्राम भी काला होता है। गण्डक नदी के काले पत्थर, उनकी सुन्दर मूर्तियाँ बनाते हैं। काले संगमरमर में चेहरा तक नज़र आ जाता है। यमुना का पानी काला है। मनुष्य धड़ाधड़ जो ग्रन्थ लिखता है, उसकी स्याही भी काली है। मेघों का रंग भी काला। काली चन्द्रकला इन्हें पसन्द है। काले बोर्ड पर ही इनकी पढ़ाई होती है। कई धर्मोपदेशकों का चोगा काला ही होता है। काली कपिला गाय पवित्र। बुक्का (एक खुशबुदार चूर्ण) भी काला। कस्तूरी काली होती है। काली आँखें गहरी और सुन्दर होती हैं। खूबसूरत बालों का रंग भी काला होता है। कृष्ण काला, राम भी काला। काला रंग सुन्दर है, पवित्र है। मगर ये इंसान हमारे रंग का उपहास करता है। हमारी आँखों का मजाक उड़ाता है। हमें काना कहता है, आँख की एक ही पुतली नचा कर हम दो पुतलियों का काम लेते हैं। पुतली एक होने पर भी हमारी नज़रें कितनी तेज हैं। एक पुतली नचा कर हम ईश्वर की बचत करते हैं। इंसानों की नाक चपटी, चौड़ी, बडौल ! उससे हमारी चोंच कितनी अच्छी ! इन इंसानों के समाज में अलग-अलग भाषाएँ हैं, वो हमारी आवाज़ के मुकाबले कितनी कर्कश हैं ! इंसानों के रोज के झगड़े सुनकर हमारे कान पक गये हैं। जुलूसों में चिल्लाते हैं, शवयात्रा में चीखते हैं, खेल के मैदानों पर शोर मचाते हैं। तरह-तरह की अजीबो-गरीब आवाज़ें निकालने वाले हैं ये प्राणी। मगर बचपन में खाना खिलाते वक्त इनकी माँ हमें ही बुलाती है। हमारी कहानियाँ, हमारे ही गीत। मगर उसे यह अहसान याद नहीं रहता। बड़ा होकर यह अहसान फरामोश इंसान हमें ही दुष्ट बताता है। कहता है – चालाक, धूर्त कौआ ! इन्होंने हमें कितना ठगा है ? हमने कब इनके गोदाम लूटे ? कब झूठ-मूठ के झगड़े करवाए ? कब जालसाजी की, वचन भंग किया, किया हुआ समझौता तोड़ा   वह खुद चालाक है, इसलिए उसे हम चालाक नज़र आते हैं। अगर देखा जाए तो हममें कितना भाईचारा है। पास में चिड़िया हों, तोता-मैना हों, हम कभी झगड़ते नहीं। मनुष्य दुर्बल पर क्रोध करता है, सताता है, रुलाता है। औरतों से छल करता है। नौकरों को, मजदूरों को सताता है। क्या हम दुर्बल चिड़ियाओं के मुंह पर मार नहीं सकते थे ? मगर हम दूसरों से छल नहीं करेंगे। हमें अकेले अपना पेट भरना पसन्द नहीं। हम दूसरों को बुलाते हैं। अपने सगे भाई से लड़ने वाला, सजातियों से झगड़ने वाला, भेदभाव की सैंकड़ों दीवारें खड़ी करने वाला यह दोपाया वाचाल पशु, खून का प्यासा, सारी सृष्टि को लूटने वाला यह लफंगा, इसका पेट कभी भी भरता नहीं। तृप्ति क्या होती है उसे पता ही नहीं, आसमान में भी वह उड़ने आता है और हमें परेशान करता है, पानी में मछलियों को परेशान करता है, जमीन पर अन्य प्राणियों को मिटा देता है, गोली मारता है। खुद मनुष्य इतना नीच है और वही हमें बदनाम कर रहा है ?

उनके कवि जिस कोयल की तारीफ करते हैं, उसे हम पालते हैं। इस भेदभाव रहित निरपेक्ष दया और प्रेम के लिए हमारी प्रशंसा करना तो दूर रहा, उलटे इंसान हमें दुष्ट और धूर्त कहते हैं। हम कितने अल्पसन्तोषी हैं ! सड़ा-गला खाकर दुनिया की गन्दगी दूर करते हैं। घर में चूहा मरे तो इंसान उसे बाहर फैंक देता है। कुछ भी सड़ गया, खराब हो गया तो वो बाहर फैंक देता हैं। उसके घूरे पर, नाली के पास कितनी गन्दगी होती है। उनके कचरे के ढ़ेर कीड़ों-मकोड़ों से भरे रहते हैं। ये सारी गन्दगी हम साफ करते हैं। तब भी वह उलटे हमीं को दोष देता है। उनके गाय-बैलों के घाव हम ही साफ करते हैं। हम उनकी मवेशियों के डॉक्टर हैं, पर `ज़ख्मों पर बैठने वाला´ कहकर हमारा मजाक उड़ाया जाता है। मृतकों की आत्मा हमारे बीच आकर वास करती है, इसलिए पूर्व ऋषियों ने रोज भोजन से पहले कुछ अन्‍न कौवों को देने का नियम बनाया था। मगर नये मनुष्य ने पहले की अच्छी परम्पराएँ छोड़ दीं। अब बेशर्मी से वह अपना बखान करते हुए कहता है – `काकोपि चिरंच बलिंच भु³क्ते´ मानो उसके दिए अन्न पर ही हमारा जीवन चलता है ! पेट भरने के लिए क्या हम बस वही दो कौर खाते हैं ? पितरों की ओर से हम अन्न ग्रहण करते हैं, तो वो हमें भुक्खड़ समझता है ! ये इंसान एक कप चाय के लिए, बीड़ी और सुपारी के एक टुकड़े के लिए, जो चाहे करेगा। आदमियों की जेल में पढ़े-लिखे देशभक्त नौजवान आए। हमने देखा है कि वो रोटी के एक टुकड़े के लिए, दाल के दानों के लिए किस तरह झगड़ते थे। जेल के पपीते चुरा कर खाते थे। कभी सिपाही ने पकड़ा तो उसे रिश्वत देते। तम्बाकू, बीड़ी, प्याज़, मिर्च, हरे चने की दाल, शकरकन्द जैसी तमाम चीज़ें वो जेल में छिपा कर रखते थे। बगीचे में अगर गाजर, शकरकन्द, टमाटर, चुकन्दर नज़र आ जाए तो उसे तुरन्त गायब कर देते। पौधों पर भिण्डी लगते ही उनके पेट में समा जाती थी। बथुआ, चौलाई, धनिया, इमली के पत्ते सभी कुछ उनकी थाली की शोभा बनता। और ऐसा आदमी कौवों को भुक्खड़ कहता है ! कंटिले पत्ते खाने वाली बकरी उसने बेहतर है। नीम के पीले रसभरे फल हमें पसन्द हैं, मगर इंसान उन निम्बोलियों पर भी नज़रें गड़ाए हुए है। तुलसी के पत्ते को पवित्र कहकर खा जाते हैं। हरे चने तो छिलके सहित गटक जाते हैं। पेड़, घाँस, वनस्पति, पशु, पक्षी, मछलियाँ…. मनुष्य ने खाने को बाकी क्या रखा हैर्षोर्षो ये बकरा खाता है, मुर्गी खाता है, बत्तखें खाता है, गाय खाता है, बैल खाता है, इसे बाघ की चर्बी चाहिए, सूअर का मांस, मछली का तेल …. इसे सब कुछ चाहिए ! आखिर इसका शरीर है किस काम का ? आकाश में उड़ने वाले पक्षियों को तो वह तीर, गोली या छर्रे से मारता है। मजे के लिए शिकार करता है। परिश्रम से जुटाया मधुमिक्खयों का शहद लूट लेता है। गाय-भैंस का दूध बछड़ों के लिए न छोड़कर खुद गटागट पी जाता है। इतना सब करके खुद को भगवान कहता फिरता है। हाय रे भगवान! मुझे तो लगता है कि ऐसे भगवान को चोंच से फाड़कर खा जाना चाहिए। मानवेतर सभी प्राणियों ने एकजुट होकर फैसला कर लिया तो उसकी चटनी बन जाएगी, चटनी ! कौवों को नेतृत्व लेकर विद्रोह के विचारों फैलाने चाहिए। इंसानों की इस जानलेवा संस्कृति, विश्व-नाशक संस्कृति, भुक्खड़-पेटू संस्कृति का जड़मूल से नाश करेंगे। आओ ! एक ही नारा लगाओ और उखाड़ फैंको उसकी सत्ता ! स्वतंत्र हों, स्वतंत्र हों।" ऐसा कह कर वह युवा नेता नीचे बैठा। उसने अनेक कौवों के विचारों को अभिव्यक्ति दी थी।

इतने में हमने देखा कि एक प्रौढ़ कौवा अध्यक्ष की अनुमति लेकर उठा। उसने कहा, "पहले कौवों का रंग नीला हुआ करता था। मगर जब एक बार इंसानों के पाप बहुत बढ़ गये तो उसने सोचा कि अगर मेरे पापों का कलंक कोई स्वीकार कर ले तो उसके बाद मैं पुण्यवान बनकर रहूँगा। जैसे जगत के कल्याण के लिए शंकर ने विष ग्रहण किया था, उसी तरह कौवों ने इंसानों के पापों को स्वीकार किया। स्वच्छ आकाश जैसे नीले दिखने वाले कौवे तब से काले नज़र आने लगे ! इंसानों ने अपने वचन का पालन नहीं किया। वो लगातार पाप में डूबता जा रहा है। अनियंत्रित, स्वैर, स्वच्छन्द, बेलगाम व्यवहार कर रहा है। करते रहे। मगर अपने काले रंग का यह उज्वल इतिहास हम सभी को याद रखना है। जगत के दुख दूर करना ही हमारा ध्येय है, यह हमें नहीं भूलना चाहिए। इंसान भले ही बिगड़ गया हो, हमें नहीं बिगड़ना है। वरना धीरे-धीरे सारी दुनिया ही बिगड़ जाएगी। अकेला इंसान बिगड़ गया तो क्या हुआ र्षोर्षो मानवेतर सृष्टि का निर्मल जीवन सृष्टि को सम्भाल लेगा। हम अपना स्वधर्म पालन करते रहें। उसी में अपना विकास, अपना उद्धार है !"

उस प्रौढ़ कौवे के भाषण के बाद तरह-तरह के सुझाव सामने आये। कोई बोला, "अपन इंसानों के अधिक शिष्ट आचरण करें। चेतवनी दिये बगैर लड़ना अच्छा नहीं।" यह सवाल भी सामने आया कि "लड़ाई सशस्त्र हो या नि:शस्त्र असहयोग किया जाए ?" किसी ने कहा, "उन्हें चोंच से फाड़ दो।" किसी ने कहा, "उनके घरों के आस-पास अगर हमने सफाई करना बन्द कर दी तो तरह-तरह की बीमारियों से वो खुद-बखुद मर जाएँगे।" दूसरे ने कहा "इंसानों के साथ ही उल्लुओं को शत्रु मान कर उनका भी नाश करना होगा।" कुछ उग्र कौवों ने कहा, "न्रमता का आचरण किसी नम्र के सामने ही किया जाना चाहिए, दुष्ट के समक्ष काहे की नम्रता ! वो हमारा मजाक उड़ाएगा। हमें पत्थर मारेगा" कुछ कौवों ने सुझाव दिया – "ईश्वर के घर जाकर हमें अपनी शिकायत दर्ज करानी चाहिए।" इसपर कुछ कौवों ने कहा, "भगवान के कानों पर बात क्यों ड़ाली जाए ? उसे सब दिखता है, समझता है। वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापी परमेश्वर सब जानता है। उसे हमारा दुख पता है। वो कहेगा तुम्हें मन, बुद्धि, शक्ति सब दिया हुआ है।"

आखिर में अध्यक्ष बोले, "परमेश्वर को सब पता हो तब भी हमें एक बार उसके सामने शिकायत ले जानी चाहिए। वो हमारा पिता है। इतने दिनों हमने उसके नियमों के अनुसार व्यवहार किया। मगर अब उसे यह बताना होगा कि यह जीवन असम्‍भव हो गया है, इसलिए उन नियमों को तोड़ कर जीना पड़ेगा। ईश्वर के पास अपने में से पाँच-छह लोगों का शिष्टमण्डल भेजा जाए। इस सब में थोड़ा समय लगेगा, फिर भी कुछ नुकसान नहीं होगा।" उनका कहना सभी को पसन्द आयाभ्‍।

भाग 4) स्वर्गारोहण

अध्यक्ष और अन्य पाँच कौवे मिलकर ईश्वर के पास जाने के लिये निकले। इस प्रतिनिधि मण्डल में युवा भी शामिल थे। कौवों और यम की पुरानी दोस्ती है। पितरों की मध्यस्थता और मृतात्माओं की सिफारिश से कौवे यम तक जा पहुँचे। अध्यक्ष ने निवेदन किया – "हमें उस राजाधिराज, जगदीश्वर के पास ले चलो।" यमराज तैयार हो गये।

यम अपने भैंसे पर चढ़ गया। छहों कौवे उसे चारों ओर से घेर कर उड़ने लगे। अध्यक्ष बुजुर्ग थे, इसलिये यम ने उन्हें भैंसे के माथे पर बैठने को कहा। पहले तो उन्होनें इनकार किया, मगर फिर सभी ने उन्हें आग्रह किया, पाँचों कौवों ने मिलकर कहा – "आप बुजुर्ग हैं, आप बैठिये। इंसान अपने बुजुर्गों का मान-सम्मान भले ही ना करता हो, हम तो करते हैं।" उनके इस तरह जोर देने पर आखिर वो भैंसे पर बैठ गये। यम का रंग काला, उनका भैंसा काला और वो कौवे भी काले, वे सभी एकरंग, एकरूप थे।

यमराज ने कहा, "पहले भरतखण्ड पितृपूजा, वृद्धपूजा वगैराह के लिये प्रसिद्ध था। मगर आज वहाँ बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता। सुना है चीन देश में अब भी उनका थोड़ा सम्मान बचा है।"

युवा नेता ने कहा – "यम महाराज, इंसान बहकते जा रहा है। हम उसके खिलाफ विद्रोह करने वाले हैं।"

यमराज ने कहा – "तुम सही तरीके से व्यवहार करो। दूसरे अगर गलत करते हैं, तो भी तुम गलत व्यवहार मत करो। ईश्वर के राज्य में आज इंसानों की कोई इज्जत नहीं है। सभी इंसान ईश्वर के राज्य से बाहर अन्धेरे में रो रहे हैं। उनमें बड़े-बड़े अमीर, सत्ताधारी, दूसरों को छलने वाले अहंकारी, निन्दक, केवल अपना पेट भरने वाले, दूसरों को रुलाने वाले, गुलाम बनाने वाले, दूसरों की गुलामी में खुश होकर रहने वाले, आलसी और परावलम्बी सारे बाहर पड़े रो रहे हैं। उनमें से कुछ महान लोग ही ईश्वर के पास जाने में सफल हो सके हैं। उन्होनें काफी मिन्‍नतें कीं। ईश्वर ने उन्हें कहा, `उन्हें शुद्ध होने दो। उस भाई के बारे में तुम्हें बुरा लग रहा हो तो तुम फिर धरती पर जन्म लो, फिर अपना बलिदान दो´, ईश्वर उन्हें फिर से नीचे धकेल देता है। तुम्हें मजा देखने को मिलेगा।"

यह सुनकर कौवों को आश्चर्य हुआ।

ईश्वर का राज्य नजदीक आने लगा। दूर एक ऊँचा कलश झलक रहा था। उसपर एक दिव्य ध्वजा फहरा रही थी। उस पर लिखा था – `सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्´

भाग 5) बदनसीब इंसान

यमराज, उनका भैंसा और इन कौवों का प्रतिनिधि मण्डल देवलोक में प्रविष्ट हुआ। तभी उन्हें चिल्लाचोट और शोर सुनाई दिया। इंसानों की अपार भी नज़र आने लगी। ईश्वर के दूत उन्हें धड़ाधड़ नीचे धकेल रहे थे। देखो, वो कैसे दया की भीख माँग रहा है, "मैं 30 मिलों का मालिक हूँ, मैंने हजारों के पेट भरे। मुझे अन्दर ले लो।"

"फैंको इसे, कहता है कि हजारों को खाना दिया, मगर लाखों लोगों को बेरोज़गार किया उसका क्या ? उन्हें गाँवों की साफ वातावरण से दूर शहर के प्रदूषण में लाकर उनका स्वास्थ्य बिगाड़ दिया। ईश्वर के दिये शरीर को जल्दी जीर्णशीर्ण कर दिया। उन्हें नशे की ओर मोड़ा। तुम खुद चैन से बैठे-बैठे अनाप-शनाप खाते रहे, लोग भूखे मरते रहे और तुम पेट में मेवे-पकवान भकोसते रहे। लोग ठण्ड से ठिठुर कर मर रहे थे, तब तुम हजारों रुपयों के सूट पहन का इठला रहे थे। फैंको, इस पापी को फैंको। हजारों-लाखों बच्चों की `हाय´ इसे लगी है ! ये अकाल, चोरी और भ्रष्टाचार के लिये जिम्मेदार है। फैंको।" गेन्द की तरह उस लखपति को नीचे फैंक दिया गया। बाकी लोगों को भी यही हाल था।

लगता है कि वो कोई राजनीतिज्ञ है। वो कह रह है, "मैंने तो राष्ट्र का फायदा किया। दूसरे देशों से अपने देश के व्यापार के लिये रियायतें दिलवाईं। मुझ देशभक्त को अन्दर जाने दो। मुझे ईश्वर के पास जाने दो।"

"फैंको इस गन्दे आदमी को। देशभक्ती यहाँ गाली है। दूसरे राष्ट्रों की गर्दन मरोड़ी, उनके उद्योग-धन्धे ठप्प कराए, उन्हें गुलाम बनाया ! अपने लोगों के लिये गगनचुम्बी अट्टालिकाएँ बनवाईं और गरीबों के झोपड़ियों में आग लगाई ! ये है तेरी देशभक्ती ! हजारों लोगों को मरने के लिए आगे किया और कायर, तू खुद पीछे रहा। देशभक्त कहींका ! इसको धकेलो पहले। कई जन्मों तक ये लायक नहीं बन सकता।"

एक ने कहा, "अरे, मैं तो अध्यापक था। मेरा काम सात्विक था। मुझे अन्दर लो।"

"अध्यापक था ? तो इसने कौन-सा ज्ञान बढ़ाया ? ज्ञान में कितना डूबा ? ज्ञान के लिये कितना पागल हुआ ? नोट्स लिखकर जुगाड़ जमाने वाला, ज्ञान बेचने वाला, आचार्य है तू ? तूने विद्यार्थियों को ऊँचा उठाने की कोशिश की ? ज्ञान कोई मजाक है क्या ? ज्ञान याने जीवन का दान होता है। तुमने क्या किया र्षोर्षो `दूसरों की नौकरी करो, गुलाम बनो !´ कहने वाला। जा गलीज़ कीडे़ जा, हजारों जन्म कुलबुलाते रह। रो। जा।"

एक वकील ने कहा, "मैं वकील था, मैंने न्याय दिलाने में मदद की।"

"फैंको इसे, न्याय के मायने जानता है ? पैसे खाने वाले चोर ! तुमने झगड़े करवाए। अपने विवेक को ताक पर रखकर सच को झूठ और झूठ को सच तुमने बनाया। असत्य की पूजा शुरू की। क्या ये न्याय है ? गरीबों को लूट कर अपनी बंगले बनाए। पहले उन्हें रुलाया और फिर उनका पक्ष लेने वाला बनकर सामने खड़ा हुआ। मुँह काला कर !"

"ये कौन, इसका चेहरा ही बता रहा है कि ये कौन है। इसने स्त्रियों के साथ छल किया है, उन्हें रुलाया और पीटा। तोड़ो इसके हाथ, फैंको नीचे !"

इसी तरह से एक-एक करके पण्डे, भटजी, व्यापारी, जमींदार नीचे फैंके जा रहे थे। वो देखो एक तगड़ा सन्यासी आ रहा है। "अरे, उन्हें यहाँ मत लाओ, दागो उसे। विषयों में डूबा हुआ, घी में डूबे पकवान खाने वाला सन्यासी ! फैंको उसे।" एक क्लर्क ने पूछा, "मैं तो हिसाब-किताब करने वाला एक गरीब कारकून हूँ। मैं क्या करूँ ?"

ईश्वर ने कहा, "क्लर्क हो ना ? पापी को सहायता करने वाला भी पापी ही है। फैंको इसे भी।"

भाग 6) ईश्वर के दरबार में

"देखा ये हाल ! देख ली ना मानवों की दुर्दशा ?" यम ने कहा, "इनमें से कोई एकाध ही इससे आगे जा पाता है।" कौवों के युवा नेता ने पूछा, "मगर हमारे भाई-बन्धु कहाँ हैं ? चिड़िया, चीटियाँ और बाकी सारे जीव-जन्तु कहाँ हैं ?"

"वो सब ? हाँ वो सारे के सारे अन्दर ईश्वर के राज्य में हैं। उन्होंने ईश्वर के कहे अनुसार काम किये। जिन्होंने काम में टालमटोल नहीं की, उन्हें अन्दर प्रवेश मिलता है। उस तरफ कुछ बैल हैं जो शरीर में ताकत होने के बावजूद कामचोरी करते थे। मगर वो अपवाद हैं। इंसानों में कानून का पालन करने वाले अपवाद होते हैं, जबकि मानवेतर जगत में कानून न पालने वाले अपवाद होते हैं। तुम कोई विद्रोह वगैराह मत करो। ईश्वर तुम्हें पसन्द करता है।"

एक आदमी की ओर इशारा करके कौवे ने पूछा – "वो जो तेजस्वी इंसान रो रहे हैं, उनमें से एक के शरीर से खून बह रहा है, वो कौन हैं।"

"वो सारे धर्मसंस्थापक हैं। वहाँ मोहम्मद पैगम्बर के शरीर से खून बह रहा है। क्योंकि कल उनके एक पागल अनुयायी ने दूसरे धर्म को मानने वाले एक आदमी के पेट में छुरा मार दिया था, वह इन्हें यहाँ लगा। अपने भक्तों के बुरे कामों का नतीजा धर्मसंस्थापकों को भुगताना पड़ता है। वो देखो गर्दन झुका कर श्रीकृष्ण रो रहे हैं। उनके शरीर पर जगह-जगह जख्म हैं। गाय को मारी गयी हर मार इनकी पीठ पर पड़ती है। और वो जो लगातार रोते जा रहे हैं, वो भगवान बुद्ध हैं। इन्होंने दुनिया को कितना महान धर्म दिया मगर उनके अनुयायी सर्वभक्षी हैं इसलिये ये रो रहे हैं। वो ईसा मरीह ! यूरोप-अमरीका के ईसाइयों का बेशर्म व्यववहार देखकर क्या करें इन्हें समझ नहीं आ रहा है। ये महान लोग दिन-रात तड़पते रहते हैं। बीच-बीच में कुछ सन्त धरती पर जाते हैं, मगर बात बन नहीं रही है। ये सोच रहे हैं कि ईश्वर को जाकर कहा जाए कि `अब धरती पर से इंसानों का अस्तित्व ही मिटा दें। हम नालायक हैं, हमारा नामोनिशान मिटा दो।´ लेकिन इस मुद्दे पर ये सब एकमत नहीं हो पा रहे हैं। इनमें से कुछ कह रहे हैं कि हम बार-बार धरती पर जाकर रोशनी दिखायेंगे।"

बातें करते-करते कौवों का प्रतिनिधि-मण्डल आन्दर पहुँचा। ईश्वर का विशाल राज्य। वहाँ की हवा खाकर ही तृप्ति मिलती थी। वहाँ चीटियाँ, चिड़िया, मोर, कोयल, गाय, बैल वगैराह नज़र आने लगे। कुछ पशु-पक्षी तो ईश्वर की गोद बैठे हुए थे। ईश्वर उन्हें सहलाते हुए पूछ रहे थे, "फिर धरती पर जाओगे र्षोर्षो मेरा नादान इंसान सुधर नहीं रहा है। वो तुम्हारा ही भाई है। उसके सुधरने तक उसकी सहायता के लिये तुम्हें जाना चाहिये। क्या तुम जाओगे ?"

"हाँ भगवान, हाँ, जैसी आपकी इच्छा। जैसा भी हो, वो हमारा भाई है। उसका भी उद्धार होना चाहिये। जब तक वो ईश्वर की मर्जी के अनुसार जीना सीख नहीं लेता, तब तक हम बार-बार धरती पर जायेंगे। और फिर एक दिन हम सब आपके पास आयेंगे।"

यम उन छहों कौंवों को ईश्वर के पास लेकर गये। उन्होंने ईश्वर के पाँव छुए। ईश्वर ने उनके पंखों को सहलाया और पूछा, "तुम लोग इतनी जल्दी क्यों आ गये ?"

"भगवान,आपको देखने के लिये। मन की शंकाओं के समाधान के लिये। लेकिन अब सारी शंकाएँ खत्म हो गयीं। हम लौटते हैं। हमें सौंपी गयी जिम्मेदारी पूरी करते हैं। प्रभु,आपकी इच्छा पूरी हो।"

"जाओ बच्चों,मैंने तुम्हारे दिल में प्रेरणा दी है। उसी के अनुसार व्यवहार करो। मोह में मत पड़ो। थक जाओ तो मैं तुम्हें वापस बुला लूंगा। अब आओ।" ऐसा कह कर ईश्वर ने उन्हें विदा किया।

यम से आज्ञा लेकर हमारे छह दूत वापस आए और उन्होंने जो दृश्य देखे थे वह हमें बताये। हम सबने इंसान के साथ जैसे को तैसा का व्यवहार करने की नीति को पूरी तरह नकार दिया। नौजवान कौवों को भी यह ठीक महसूस हुआ। हमने फैसला किया कि मनुष्य कितनी भी बुराई करे, हमें ईश्वर की इच्छा के अनुसार ही जीवन जीना है, अपना काम करना है। हम सभी अपने-अपने इलाके में लौट गये। पहले की तरह जीवन जीने लगे। समझे बेटा। अब मैं जाता हूँ। मेरे वो दोनों दोस्त अब तक बीमार हैं।" इतना कह कर वह कौवा जाने लगा।

रोटी का एक टुकड़ा देते हुए मैंने उससे कहा, "कौवे दा, ये रोटी का टुकड़ा उन बुजुर्ग दोस्तों के लिए लेते जाओ !"

उसने जवाब दिया, "ठीक है, ले जाता हूँ। उन बूढ़े कौवों को खुशी होगी। तुम अच्छे से रहो। ईश्वर की इच्छा के अनुसार व्यवहार करो।"

भाग 7) आनन्द ही आनन्द

कौवे की सारी हकीकत सुनकर मैं लज्जित हो गया। चौंक गया। मैंने उसे कहा, "प्यारे दोस्त, ये एक और टुकड़ा ले जाओ। तुम भी खाओ। पानी पीयो। मुझे सन्तोष होगा। तुमने मुझे दिव्य विचार दिये। मैं प्रेम से यह टुकड़ा तुम्हें दे रहा हूँ, लो।" मेरे कहने पर उसने रोटी का टुकड़ा खाया। पानी पीया। मैंने उसे सलाम किया। वह उड़ गया।

मेरे जीवन में क्रान्ति हो गई। पशु-पक्षियों के प्रति मेरे मन में प्रेम सौ गुना बढ़ गया। मैं पेड-पौधों और कीडे़-मकोड़ों से प्रेम करने लगा। चिड़िया-कौवों से प्रेम करने लगा। मगर इसके साथ ही इंसानों का मैं तिरस्कार करने लगा। मुझे इंसानों से नफरत होने लगी। मुझे ऐसा लगने लगा कि इंसानों की आवाज़ तक नहीं सुननी चाहिये। मैं आँखों पर पट्टी बान्ध लेता था। कानों में रूई ठूंस लेता था। इंसानों को देखना ही मुझे नागवार था।

लेकिन मैं खुद भी तो इंसान ही था। अपनी नस्ल से ही मैं ऊबने लगा। इस रौ में मैं न जाने कहाँ बह कर जाने लगा। मुझे सूझ ही नहीं रहा था कि क्या किया जाए। कभी आखों से अश्रुधारा बहने लगती थी। मैं तड़प कहता, "हे भगवान, मुझे रास्ता दिखाओ।"

रास्ता पास ही था। मुझे अपने आस-पास के मानवबन्धुओं से प्रेम करना चाहिये था। मैं प्रेम करने लगा। मुझे सन्तुष्टि मिलने लगी। मगर मैं छोटा बच्चा। मन में आता कि मैं कितना दे सकता हूँ। मुझे महसूस होता कि मैं शुद्ध नहीं, मैं अहंकारी, ईष्र्या करने वाला हूँ, इसके बावजूद मैंने निराश न होने का निश्चय किया। जो किया जा सकता है, वो किया जाए। प्रत्येक के हृदय में ईश्वर की आवाज़ बसी होती है। मेरे हृदय में भी वो है। इस तरह से निराशा कम होती गयी। शान्ति मिलने लगी। जीवन में सार्थकता आयी। ज़िन्दगी में गहराई महसूस होने लगी। जीने में आनन्द आने लगा।

मैंने जान लिया कि हम जितने सुन्दर होते जायेंगे, वैसे ही अपने का यह सृष्टि भी सुन्दर दिखने लगेगी। संक्षेप में, सारा कुछ अपनी दृष्टि पर ही निर्भर है !

मराठी से अनुवाद

– अमित
पो. बॉ. 10, होशंगाबाद 461001 म.प्र
amit_gayatri@msn.com / amt1205@gmail.com

(यह कथा आन्‍तर भारती पत्रिका में मई से सितम्‍बर 2009 के दौरान धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुई थी।)

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