आजाद भारत में जन

अगस्‍त 2009

15 अगस्त को हम भारत की आजादी का एक और जश्न मनायेंगे। झण्डा फहरेगा। यह मौका है कि हम अपने देश में पिछले एक साल की प्रमुख घटनाओं का सिंहावलोन भी करें। हमने देश को कितना आगे बढ़ाया या कितना पीछे घसीटा हैर्षोर्षो एक भारतीय के रूप में अपने कर्तव्य का पालन किस प्रकार किया हैर्षोर्षो आज की दुनिया में भारत की हैसियत किस पायदान पर है – खेल, आन्तरिक सुरक्षा, आर्थिक खुशहाली, अमन, पड़ोसी देशों से रिश्ता, देश के अलग-अलग वर्गों (जाति, धर्म लिंग, क्षेत्र, भाषा, प्रान्त, आर्थिक स्थिति आदि) के बीच अन्तर कितना कम हुआ है… इस प्रकार के अनेक मानक हो सकते हैं, जो हमें अपने देश की हालत से परिचित करा सकते हैं।

15 अगस्त का दिन हमारा ध्यान इस ओर भी आकृष्ठ करता है कि 1947 में मिली राजनैतिक आजादी किस हद तक भारत के आमजन तक पहुँची हैर्षोर्षो आम नागरिक अपने को देश से, उसके कानून, संविधान, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका से कितना जुड़ा हुआ महसूस करता है ? उसे अपने भारतीय होने पर गर्व है या नहीं ? इन पैमाने पर हम आकलन करें तो पायेंगे कि हालात 1947 के मुकाबले कुछ सुधरे भले ही हों, मगर कुल स्थिति सन्तोषजनक नहीं है। संविधान ने मतदान के माध्यम से विधायिका पर जनता का नियंत्रण दिखाने वाला अधिकार दिया है। उसके चलते देश में सत्ता परिवर्तन भी हुआ है, अनेक बार बुरे जन-प्रतिनिधियों को जनता ने नकार भी दिया है। इसी प्रकार न्यायपालिका के माध्यम से भी जनता के पक्ष में अनेक अच्छे कदम उठाये गये हैं, शहरी प्रदूषण नियंत्रण का मामला हो या जंगलों की कटाई, शिक्षा को मूल अधिकार मानना और समाचार-पत्र की खबर या पोस्ट कार्ड को भी जनहित याचिका मानना, अनेक बार न्यायपालिका ने देशहित को ऊपर रखकर फैसले दिये हैं।

इसके बावजूद कहीं कमी नजर आती है। संसदीय लोकतंत्र में सबसे बड़ा सवाल जनता के असन्तोष की अभिव्यक्ति को लेकर है। एक पक्ष का कहना होता है कि मतपत्र में सरकार बदलने की ताकत होती है। यही संसदीय लोकतंत्र की विशिष्ठता है। मगर दूसरा पक्ष कहता है कि अगर सभी दलों की नीतियों, कार्यक्रमों और आचरण से विश्वास उठ गया हो तो मतदाता क्या करेर्षोर्षो इस सवाल के अनेक जवाब उभरते हैं, जैसे नये राजनीतिक दल का गठन, जनता एक दबाव समूह के रूप में स्थापित दलों और सरकार पर नियंत्रण, न्यायपालिका की शरण, संसद के बाहर असन्तोष की अभिव्यक्ति… आदि। आजाद भारत में जनता ने इस प्रकार के तमाम विकल्प आजमा लिये हैं। मगर न तो सरकारें पूरी तरह जनोन्मुख हुईं और ना ही असन्तोष का पूर्ण शमन हुआ है। अत: हमें यह मान कर चलना होगा कि यह द्वन्द्व एक सतत् चलने वाली प्रक्रिया है और इसी से उत्तरोत्तर वैचारिक व भौतिक प्रगति का मार्ग खुलते जायेंगे। लोकतांत्रिक प्रणाली भी शायद इसी प्रक्रिया से गुजर कर मजबूत होती जयेगी।

लेकिन इस प्रक्रिया में भी एक बड़ी दिक्कत है। असन्तोष की अभिव्यक्ति को `शासन कानून और व्यवस्था का प्रश्न´ मानता है, `राजनैतिक प्रक्रिया´ नहीं। जनता के विरोध प्रदर्शन – वह शान्तिपूर्ण हो तब भी – हमेशा पुलिस के बल पर निपटाने की कोशिश होती है। यह परम्परा लोकतंत्र के स्वस्थ विकास में बाधक है। पुलिस दमन के बाद जनता के पास करने को बहुत कुछ नहीं बचता, कुछ हद तक हौसला भी टूट जाता है और हताशा व भ्रम की स्थिति में अक्सर जनता कानून के दायरे से बाहर भी चली जाती है।

हाल के चर्चित मुद्दे, लालगढ में भी शुरूआत ऐसी ही हुई। सारे देश में `विशेष आर्थिक क्षेत्र´ (सेज) स्थापना का अभियान जोरों पर है, पिश्चम बंगाल भी इस होड़ में शामिल है। इसी क्रम में लालगढ़-झारग्राम-शालबानी में सेज को पाँच हजार एकड़ भूमि देना तय हुआ। नवम्बर 2008 में माओवादियों ने इसके शिलान्यास के लिये जाते प्रदेश के मुख्यमंत्री और तत्कालीन इस्पात मंत्री के काफिले पर हमले का असफल प्रयास किया। परिणास्वरूप लालगढ क्षेत्र में माओवदियों की तलाश में पुलिस का अभियान आरम्भ हुआ। रात में की जाने वाली तलाशी के नाम पर पुलिस ने आदिवासियों, विशेषत: महिलाओं पर अनेक अत्याचार किये। इसके विरोध में लालगढ़ क्षेत्र के आदिवासियों ने पुलिस के खिलाफ `पुलिस अत्याचार विरोधी जनसाधारण कमेटी´ बना कर आन्दोलन शुरू किया। पुलिस को रोकने के लिये लालगढ़ आने वाले रास्तों पर अवरोध खड़े कर दिये। इस कमेटी की मांग थी कि महिलाओं पर की गई ज्यादती की पुलिस माफी मांगे, रात में तलाशी न ली जाए, क्षेत्र में बुनियादी जन- सुविधाएँ उपलब्ध कराई जाएँ और माओवादी होने के सन्देह में पकड़े गये आदिवासियों को छोड़ा जाए। शासन के इनकार करने पर आदिवासियों ने अपने पारम्परिक हथियार – तीर-कमान, टांगी, आदि लेकर पुलिस से अपने गाँवों रक्षा करने का निर्णय किया। इसके बाद कानून व्यवस्था बहाल करने के नाम पर किये गये दमन की कथा बहुप्रचारित है।

सवाल वही शेष है – आजाद भारत में आम जन अपने असन्तोष को अभिव्यक्त कैसे करे र्षोर्षो इस सवाल का जवाब संसदीय लोकतंात्रिक प्रणाली को एक कदम आगे ले जायेगा। मगर फिलहाल प्रश्न अनुत्तरित है।

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