मई 2009
मई का महीना आते ही साने गुरूजी के नेतृत्व में हुए मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह का स्मरण हो आता है।
सदियों से भारतीय समाज में अपने को श्रेष्ठ मानने वाली जातियों ने समाज की अन्य जातियों को अपने से दूर रखने का प्रयत्न किया है। इस क्रम में दलितों को निरक्षर रखकर उन्हें पुस्तकीय ज्ञान से दूर रखना(संस्कृत भाषा ही न सीखने देना, जो उस समय ज्ञान के निर्माण, संग्रह और ज्ञानियों के संवाद की भाषा थी)दलित जातियों को बलपूर्वक ऐसे कामों तक ही सीमित रखना जो समाज में कोई नहीं करना चाहता। बच्चों को बचपन से ही इन `संस्कारों´ से संस्कारित करना और फिर सामाजिक बहिष्कार एवं सांस्कृतिक विभेद के सर्वोच्च सूचक के रूप में दलितों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित करना….. ऐसे अनेक प्रयास किये गये हैं।
दलितों के शोषण के समानान्तर ही उस शोषण के खिलाफ संघर्ष का भी इतिहास है। भारत में वैसा समाज कभी भी नहीं रहा जैसा मनुस्मृति में बताया गया है। हालाँकि अनेक ब्राह्मणों और शासकों ने मनुस्मृति को आदर्श मान कर उसके अनुसार समाज बनाने के प्रयत्न अवश्य किये हैं। तथापि हमें इतिहास में इस कुचेष्ठा के विरोध में किये गये व्यक्तिगत एवं सामूहिक संघर्ष की उपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए। भारतीय समाज के ब्राह्मणीरकरण का जब-जब प्रयत्न हुआ है, उसका जबरदस्त प्रतिरोध भी हुआ है। समाज के बहु-जन ने ब्राह्मणीरकरण कभी भी स्वीकार नहीं किया है। यह द्वन्द्व समझे बगैर भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास का न्यायपूर्ण आकलन नहीं किया जा सकता है।
समाज के ब्राह्मणीरकरण का विरोध केवल दलित-शोषित जातियाँ ही कर रही थीं, ऐसा नहीं है। अनेक सवर्णों ने भी इसके खिलाफ संघर्ष किया है। साने गुरूजी उसी परम्परा के एक सशक्त ध्वज-वाहक हैं। उनके संवेदशील मन को जन्मगत जाति के आधार पर किसी भी प्रकार का विभेद स्वीकार ही नहीं था। स्वतंत्र भारत में वे यह देख ही नहीं सकते थे कि जन्मगत जाति के आधार पर समाज का एक बड़ा वर्ग सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक उत्थान के अवसर से वंचित है।
सवाल सिर्फ मिन्दर प्रवेश का नहीं था, वह एक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक समता की ओर बढ़ने का सोपान था। यह तो साने गुरूजी भी जानते थे कि भगवान केवल मन्दिर में नहीं मिलते। वे सम्पूर्ण समता के सूत्रधार थे।
हम, उनके भावनात्मक-वैचारिक उत्तराधिकारी, क्या उस समता के सूत्र को थाम कर आगे बढ़ रहे हैं या कहीं उलझ कर रह गए हैं?