जून 2008
महंगाई की मार से लोग परेशान हैं। अखबार बता रहे हैं कि महंगाई का सूचकांक रिकार्ड स्तर पर पहुँच गया है। आटा, दाल, सब्जी, तेल जैसी बुनियादी जरूरतों की चीजों के दाम अचानक आम आदमी को अपनी पहुँच के बाहर लगने लगे हैं। अनाज का उत्पादन तो घटा नहीं है, बढ़ा ही है। हाँ, जैविक ईन्धन और सोयाबीन जैसी नकदी फसलों के कारण पिछले वर्षों में दालों का उत्पादन अवश्य कम हुआ है। वित्तमंत्री ने भी अर्थव्यवस्था के मजबूत होने का दावा करते हुए कार, मोबाईल, कम्प्यूटर सस्ते किये थे। फिर अचानक ऐसा क्या हो गया कि हर जरूरी चीज के दाम आसमान छूने लगे?
असल में कुछ भी अचानक नहीं हुआ है। यह तो नई आर्थिक नीति के नाम पर बोये गये बीजों के फल हैं। उद्योग और पूँजी के प्रवाह को प्रोत्साहन देने के नाम पर सरकार ने लोक-कल्याण के अपने संवैधानिक दायित्व से मुँह मोड़ लिया और उद्योग, व्यापार व पूँजी पर जो नियंत्रण थे, वे क्रमश: हटा लिये।
अब पूँजी देश में खुला खेल खेलने को आज़ाद हैं। पैसे से पैसा कमाने के खेल में एक कृत्रिम अर्थव्यवस्था उभरी है, जिसमें शेयरों `निवेश´ कर चन्द दिनों में अपनी पूँजी को दुगना-तिगुना कर लिया गया। किसी ने यह पूछने की जुर्रत नहीं की कि यह पैसा आखिर दिन दूना रात चौगुना बढ़ कैसे रहा है? देश की अर्थव्यवस्था में ऐसा कौन सा चमत्कार हो गया है? जबकि देश की अर्थव्यस्था का बुनियादी तंत्र – खेती और छोटे उद्योग – अभूतपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। अर्जुन सेनगुप्त आयोग की रपट के अनुसार देश के 40 करोड़ लोग प्रतिदिन 12 रुपये से कम खर्च कर पाते हैं तथा 80 करोड़ से अधिक लोग ऐसे हैं, जिनका दैनिक खर्च 20 रुपये प्रतिदिन से कम है। इंण्डियन कौंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च ने प्रति ग्रामीण व्यक्ति प्रतिदिन 2400 कैलोरी पोषण की सीमा तय की थी, जबकि देश की कुल खुराक का राष्ट्रीय औसत 1800 कैलोरी प्रतिदिन है। अब कोई वित्तमंत्री या अर्थशास्त्री बताए कि कुल 12 रुपये प्रतिदिन खर्च कर सकने वाला व्यक्ति प्रतिदिन कितनी कैलोरी खुराक जुटा पाएगा?
किसानों की आत्महत्याओं का मतलब भी यही है कि खेती बुरे दौर से गुजर रही है। शहरों की ओर पलायान तथा छोटे व मझौले उद्योग बन्द होने से सिद्ध होता है कि बुनियादी उत्पादन पर गहरा संकट है। हमें अपने आप को भुलावे में नहीं रखना चाहिये। `समृद्धि´ के जो आँकडे़ दिये जा रहे हैं, वह छलावा हैं। आँख खोलकर देखने पर हकीकत हमें अपने आसपास ही नजर आएगी।
संविधान की प्रस्तावना में देश को ‘समाजवादी लोकतंत्र’ बनाने की बात कही गई है। जिसका निहितार्थ है कि देश का आर्थिक नियोजन और संसाधनों का उपयोग तथा वितरण समानता के आधार पर होगा। मगर सरकार का आचरण पूँजीवाद को बढ़ावा देने का है, जिसमें सामुदायिक हित और समान वितरण के स्थान पर व्यक्तिकेन्िद्रत अनियंत्रित मुनाफा कमाने (इसे लूट कहा जाना चाहिये) की छूट है। नव-पूँजीवाद का तर्क है कि सरकार को आर्थिक व्यवहार में नहीं पड़ना चाहिए और बाज़ार को ही यह तय करने देना चाहिये कि उत्पादन और वितरण की प्राथमिकता क्या होगी?
इसलिये अब केन्द्र में मुनाफा है, सामुदायिक हित या समानता नहीं ! अब हमारे वर्तमान और भविष्य का नियन्ता बाज़ार है।
इसलिये कहो – बाज़ार की जय !!