अब तक शासन की जितनी पद्धतियों के प्रयोग हो चुके हैं, उनमें संसदीय लोकतंत्र को सर्वश्रेष्ठ इसलिए माना जाता है कि यह समाज में अवसर की समानता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और परस्पर बन्धुत्व को सुनिश्चित करने का वचन देता है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के दिनों यह मुद्दा लम्बी बहसों का हुआ करता था कि स्वतंत्र भारत में किस प्रकार की शासन पद्धति लागू होगी?
भारत की आज़ादी के संघर्ष के दौरान ही 1917 में रूस में बोल्शेविक क्रान्ति हुई थी। सोवियत संघ ने सारे विश्व को एक नए प्रकार के समाज निर्माण का वादा किया था, सपना दिखाया था। एक ऐसे समाज का सपना, जो पहले से अधिक समता-मूलक और अधिक विकसित होगा। इसका प्रभाव दुनिया भर में पड़ा। भारत के तत्कालीन नेता इस प्रभाव से अछूते नहीं रहे। भारत में समाजवाद और साम्यवाद के पैराकारों का गहरा प्रभाव था।
कांग्रेस में भी ऐसे नेताओं की कमी नहीं थी। वह दौर ही ऐसा था कि पक्ष में हों या न हों, कोई भी विद्वान समाजवाद के प्रभाव को नकार नहीं सकता था। सारी दुनिया तेजी से दो ध्रुवों के आसपास केन्द्रित होती जा रही थी। एक ध्रुव पूँजीवादी साम्राज्यवादी राज्य था, जहाँ आमतौर पर द्वि-दलीय या बहु-दलीय संसदीय प्रणाली थी। जनता की प्रखर माँग और सोवियत खेमे के प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव की वजह से अन्ततोगत्वा उन्हें भी समाजवादी के मूलभूत मूल्य `समता´ को स्वीकार करना पड़ा और इस प्रकार `लोक-कल्याणकारी सरकार´ की अवधारणा का जन्म हुआ। इसमें यह माना गया कि नागरिकों के कुशल-क्षेम का दायित्व सरकार का है।
इसी क्रम में, लम्बी लडाई के बाद महिलाओं को मताधिकार मिला। ध्यान रखने की बात है कि संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सभी को समान रूप से मताधिकार भी संघर्ष के बाद और परीक्षा के कई चरणों से गुजर कर मिला है।
संसदीय लोकतंत्र के आलोचक इसकी अनेक कमियाँ गिनाते हैं। सही है कि इसमें अनेक प्रकार की खामियाँ हैं। उन्हें दूर करने के लिए संघर्ष होते रहे हैं, हर लडाई में जीत ही मिली हो ऐसा भी नहीं। दो कदम आगे बढ़ाने के लिए कभी एक कदम पीछे भी हटना पड़ा है। सभ्यता और समाज का विकास ऐसे ही होता है।
संसदीय लोकतंत्र को अधिक लोकोन्मुखी बनाने के लिए अनेक प्रकार के संघर्ष आज भी चल रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयास है जन-प्रतिनिधियों को वापस बुलाने का अधिकार। यह माना जाता है कि संसदीय लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि होती है और शासन चलाने के लिए बहुमत के आधार पर वह अपने प्रतिनिधियों को संसद में भेजती है। `बहुमत´ की व्याख्या और स्वरूप को लेकर मतभेद हो सकते हैं। लेकिन इसमें मूल मुद्दा यही है कि जब जनता का विश्वास प्रतिनिधियों पर न रहे, तो क्यों न जनता उन्हें वापस बुला ले ?
जो हो, चुनाव का पर्व आ चुका है। हमेशा बात उठती है कि जागृत, संवेदनशील और जनता के हितों से सरोकार रखने वाले सज्जन क्या करें ? चुनावों की इस रेलमपेल में उनकी भूमिका क्या हो ? राजनीतिक दलों के नक्कारखाने में क्या ऐसे सज्जनों की तूती कोई सुनेगा ? चुनावों में कोई हस्तक्षेप किया जाए या नहीं ? इस पर भी लम्बी बहसें और गहरा विचार मंथन होते रहता है। होना ही चाहिए।
मगर सामने जो चुनाव आ रहे हैं, उसमें क्या करें? एक छोटा सा काम है, जिसे अनेक लोग अभियान के रूप में भी कर सकते हैं, करते हैं। सच है कि इससे चुनाव-प्रणाली और चुने हुए प्रतिनिधियों के चरित्र पर कुछ खास फर्क नहीं पड़ेगा, मगर यह एक नई जागृति लाने का यह एक कार्यक्रम हो सकता है – कोई मतदाता यदि देखे कि सभी उम्मीदवार नाउम्मीद करने वाले हैं, कोई भी चुने जाने लायक नहीं। मगर फिर भी वह मतदाता चुनाव में भाग लेना चाहता है, एक अच्छे नागरिक की भूमिका का निर्वाह करना चाहता है। वह क्या करे ?
एक उपाय है, वह मतदान केन्द्र पर तैनात पीठासीन अधिकारी को इसकी सूचना दे सकता है। पीठासीन अधिकारी मतदाता सूची में उसके नाम के सामने हस्ताक्षर कराएगा या अंगूठा लगवाएगा। इसके बाद वह मतदाता से फार्म `17 ए´ में प्रविष्ठी करवाएगा। इस फार्म पर भी मतदाता के हस्ताक्षर या अंगूठे का निशान दर्ज होगें। वह मतदाता की उंगली पर काला निशान भी लगाएगा। पीठासीन अधिकारी ऐसे सभी फार्म जिला निर्वाचन अधिकारी और चुनाव आयोग को उपलब्ध कराएगा। इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन से मतदान होने के बावजूद फार्म 17 ए भरा जा सकता है। निर्वाचन आयोग से इस सन्दर्भ में पीठासीन अधिकारियों व अन्य सम्बद्ध अधिकारियों को धारा `49 शून्य´ के तहत निर्देश जारी किए जा चुके हैं। इस पूरी कवायद का अर्थ है कि मतदाता जागरूक है, अपने मत का प्रयोग करना चाहता है, मगर उसे कोई भी उम्मीदवार `योग्य´ नज़र नहीं आया और वह यह बात बाकायदा दर्ज करा रहा है।
पढ़ने में यह जितना आसान लग रहा है, असल में उतना है नहीं। मतदान केन्द्र पर मौजूद पीठासीन अधिकारियों में से अधिकांश को इसकी जानकारी ही नहीं होती। काफ़ी बहस करनी पड़ सकती है। हो सकता है कि वे ऐसी किसी व्यवस्था का अस्तित्व की अस्वीकार कर दें। इसका उपाय है कि चुनाव के पहले आप जिला निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय से पूरी जानकारी लिखित में प्राप्त कर लें। जानकारी प्राप्त करने के लिए जरूरी हो तो `सूचना का अधिकार´ प्रयोग करें। सूचना पाने का यह लोकतांत्रिक अधिकार भी लम्बे संघर्ष के बाद ही मिला है।